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ऐसे थे समर दा।

बादल सरोज, १, आगस्त २०१३

कामरेड समर मुखर्जीभारत में साम्यवादी आंदोलन के सबसे असाधारण और समर्पित नेता थे। एक बहादुर स्वतंत्रता सेनानीट्रेड यूनियन आंदोलन के पुरोधायोग्य सांसद और नेतासमरदा का 18 जुलाई की सुबह कोलकाता में 100 वर्ष की आयु में निधन हो गया। वे अंतिम समय तक उसी पार्टी कम्यून में रहेजहाँ आज़ादी के पहले कभी आकर उन्होंने अपना डेरा डाला था। पिछले  नबंवर 2012 को कामरेड समर मुखर्जी पूरे एक सौ साल के हुए थे।

 

वे 1940 में पार्टी में शामिल हुए और इस तरहसीपीआई (एमके सबसे पुरानी जीवित सदस्य थे। मजदूर वर्ग के हितों के लिए और भारत के शोषित लोगों के लिए एक कम्युनिस्ट के रूप में उन्होंने अपना पूरा जीवन समर्पित किया। वह 1966 से पार्टी की केंद्रीय समिति का सदस्य थे और 1978 में उन्हें पोलिट ब्यूरो के लिए चुना गया तथा 1992 में पार्टी की 14 वीं कांग्रेस में वे पार्टी के केन्द्रीय कंट्रोल कमीशन के अध्यक्ष के रूप में निर्वाचित हुए मृत्यु के समय वह केंद्रीय समिति के स्थायी विशेष आमंत्रित सदस्य थे।  

   

कामरेड समर मुखर्जी ने एक युवा छात्र के रूप में अपनी राजनीतिक गतिविधियों की शुरूआत की और शीघ्र ही आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए। वह गहरी मार्क्सवादी विचारधारा और पार्टी के काम से प्रेरित थे। 1940 में पार्टी सदस्यता मिलने के तुरंत बाद वे पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए। हावड़ा जिले में साम्यवादी आंदोलन के संस्थापकों में से वे एक थे। 1942 में अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी के हावड़ा जिले के सचिव बने और 1953 में पार्टी के पश्चिम बंगाल राज्य परिषद के सदस्य बने। तत्कालीन पूर्वी बंगाल से आये शरणार्थियों के अधिकारों के लिए आंदोलन व उनके बीच कम्युनिस्ट पार्टी के प्रभाव के विस्तार में उन्होंने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। शरणार्थी आन्दोलन के वे सबसे बड़े नेता थे।

एक प्रमुख कम्युनिस्ट सांसद के रूप में उन्होंने उत्कृष्ट भूमिका निभाई। 1957 में वह उत्तर हावड़ा निर्वाचन क्षेत्र से विधायक के रूप में निर्वाचित हुए। उसके बाद 1971 से लगातार तीन कार्यकाल के लिए वे हावड़ा निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा के लिए चुने जाते रहे। दो कार्यकालों के लिए वे राज्य सभा के लिए चुने गए। सांसद के रूप में अपने बेहद सक्रिय एवं हस्तक्षेपकारी कार्य और सारी सीमाएं लांघकर भी दबे कुचलों की आवाज उठाने के चलते उन्हें सभी का आदर और सम्मान भी हासिल हुआ सीटू की स्थापना के समय से ही वे इसके राष्ट्रीय नेतृत्व का हिस्सा रहे। 1983 से1991 तक महासचिव के रूप में उन्होंने सीटू का नेतृत्व किया। उन्होंने 1974 के ऐतिहासिक रेलवे कर्मचारियों की हड़ताल में प्रमुख भूमिका निभाई थी आपातकाल के दौरान उन्होंने कार्यकर्ताओं पर हमले के खिलाफ लड़ाई लड़ी।

 

उन्होंने एक मजदूर नेता, सांसदलेखक और पार्टी के संगठनकर्ता के रूप में एक बहुआयामी योगदान दिया। वे अपना पूरा जीवन पार्टी की सेवा में लगाकर, पार्टी कम्यून में सादा जीवन जीने और सभी निजी हितों का बलिदान करने वाले ऐसे व्यक्ति थे जो सभी को आसानी से सुलभ थेमिलनसार थे और लोगों से प्यार करते थे। मध्यप्रदेश पार्टी के शुरुआती संगठनकर्ता के रूप में उन्होंने बेहद बड़ी भूमिका निभाई है। साठ और सत्तर के दशक से ही वे छत्तीसगढ़ में रह कर जिलों के काम की देखरेख करते थे। आपातकाल के बाद उन्होंने पूरे मध्यप्रदेश के प्राभारी के रूप में अत्यंत सक्रिय योगदान दिया। करीब 17-18 वर्ष तक वे पार्टी के प्रभारी रहे।

आपातकाल (26 जून 1975 – 21 मार्च 1977) खत्म होने के बाद मध्यप्रदेश में राज्य स्तर पर सी पी आई (एमको एक बार पुनसंगठित करने का प्रयत्न पार्टी के अखिल भारतीय केन्द्र ने किया था। इससे पहले बनी दो राज्य समितियां या तो बिखर चुकी थी या अपनी राजनीतिक अपरिपक्वता के चलते भंग की जा चुकी थी। मध्यप्रदेश के विभिन्न जिलों में जूझ रहेमगर एक दूसरे से अपरिचितकामरेडों और उनकी इकाईयों में चल रहे आंदोलनों को एक सूत्र में पिरोने का जिम्मा पार्टी केंद्र की ओर से समर दा ने संभाला था। वैसे वे मध्यप्रदेश के तबके एक बड़े हिस्सेजो बाद में छतीसगढ़ के रूप में पुर्नगठित हुआके कामकाज से पहले से ही जुड़े हुए थे। 1972 मेंजब इन पंक्तियों का लेखक एस एफ आई (स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडियामें शामिल हुआ था तब उसने कई बार मिथकीय यूनानी सुन्दरता वाली इस शानदार शख्सियत को अपने शहर ग्वालियर की ट्रेड यूनियन व पार्टी बैठकों में शामिल होते और भाषण देते देखा था। मगर उनका असली भागीरथ रूप तब देखने में आया जब 1978 में भोपाल में हुए सी पी आई(एमके राज्य सम्मेलन (जिसे तीसरा राज्य सम्मेलन कहा गया थामें वे कॉमरेड बी टी रणदिवे के साथ उपस्थित हुए थे। इस राज्य सम्मेलन से पहले हुए सभी जिला व क्षेत्रीय सम्मेलनों में उन्होने अकेले ही भाग लिया था। वे 1992 तक मध्यप्रदेश की पार्टी के प्रभारी रहे जिसमें से ज्यादातर वक्त उन्होंने कॉमरेड बी टी आर रणदिवे के साथ और बाकी कुछ वक्त कॉमरेड पी रामचंद्रन के साथ बिताया। मगर सच में कहा जाये तो वे सिर्फ प्रभारी नहीं थेवे असल संगठनकर्ता थे। तबके मध्यप्रदेश के कोयलाइस्पातडिफेंसटेलीफोन्सबीएचईएल और रेलवे के श्रमिक आंदोलनों के लिए तो जैसे वे उनके अपने स्थानीय नेता थे। इस्पात और बीएचईएल की यूनियनों के तो वे लंबे समय तक अध्यक्ष भी रहे। वे आंदोलनकर्ता-संगठनकर्ता और प्रचारक तीनों के सशरीर रूप थे । इसके लिए वे पूरे पुराने मध्यप्रदेश में इतना घूमे हैं जितना शायद ही कोई और गया हो। इन पंक्तियों को लिखते वक्त ही मध्यप्रदेश के राजघाट चंदेरी के बांध विस्थापितोंछतरपुर के दलित उत्पीडऩपन्ना की हीरा व बालाघाट की तांबा खदानों जैसे ऐसे स्थान याद आये है जहॉ हम अभी तक नही पहुंचेमगर समर दा हो आये थे । इस नबंवर को कैलारस मुरैना के पार्टी क्लास में बोलते हुए इन पंक्तियों के लेखक ने समर दा के जन्मदिन का जिक्र किया तो मुरेना जिले के एक वरिष्ठ साथी (कॉमरेड रामसिंह धाकड़ने बताया कि समर दा उनके यहाँ भी आ चुके थे। एक बार चीनी मिल मजदूरों की लड़ाई में वे आये थे और गन्ना किसानों को संगठित करने की समझाईश देकर गए थे। ग्वालियर शहर को बी-2 श्रेणी का दर्जा दिलाने की माँग को लेकर संसद और उसके बाहर समर दा ने इतनी प्रभावी भूमिका निभाई थी कि ए जी ऑफिस कर्मचारियों की एक सभा में बोलते हुए खुद अटल बिहारी वाजपेयी ने इस मामले में उनके योगदान का नाम लेकर जिक्र किया था। यह प्रसंग वाजपेयी जी से जोड़कर समर दा के जिक्र की वजह से नही लिखा जा रहा बल्कि यह याद दिलाने के लिए लिखा जा रहा है कि ग्वालियर वाजपेयी का गृह नगर था मगर उसे बड़े शहर का दर्जा दिलाने की लड़ाई हावड़ा से लोकसभा में पहुंचे समर दा ने लड़ी व जीती थी और इस यथार्थ को स्वयं अटल बिहारी वाजपेयी ने स्वीकार भी किया था।

दमन से जूझ रहे कार्यकर्ताओं के लिए तो समर दा सबसे बड़े प्रेरणास्रोत थे। मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ के कोयला आन्दोलन के जुझारू नेता कामेश्वर सिंह को पूरावक्ती कार्यकर्ता बनने की प्रेरणा समर डा ने ही दी। ऐसे अनेक उदाहरण और भी है। सीटू के एक और विलक्षण नेता थे-बी चक्रबर्ती। हम लोग उन्हें बेलाडीला चक्रबर्ती कहते थे। वे आकाश नगर बचेली में लगभग पूरी दुनिया से अलग बसी कॉलोनी में अकेले दम मोर्चा खोले हुए थे समर दा ज्यादा नहीं तो कम से कम दर्जन बार तो इस अकेले कामरेड से मिलने और उसकी मांग उठाने के लिए बस्तर के इस कोने में गए होंगे।

समर दा की अनगिनत मध्यप्रदेश यात्रायें रेलवे स्टेशन के बाद साइकिलों या दो पहिया वाहनों पर हुई हैं। उन दिनों (वैसे इन दिनों भीचार पहिया वाहनों की व्यवस्था हमारे लिए बड़ा मुश्किल काम हुआ करती थी। मगर एक बार भी उन्होंने पैदल चलने या साइकिलों पर ले जाने को लेकर टीका टिप्पणी नहीं की। कोयला खदानें हों या बस्तर के पखांजूर के बंगाली शरणथियों के गांवरीवा हो या गुनाभोपाल हो या बालाघाट-सिवनीसमर दा को हम शायद ही कभी किसी सरकारी या पब्लिक सैक्टर के रेस्ट हाऊस में रुकवा पाये। हालांकि वरिष्ठ सांसद होने के नाते वे इस के अधिकारी थेमगर मध्यप्रदेश तो मध्यप्रदेश ही है न। उनके लिए होटल तो हमने शिवपुरी में भी नहीं किया था। लगभग हर जगह वे या तो किसी मजदूर के क्वार्टर में रुके या किसी पार्टी साथी के घर पर ठहरे। लोकसभा में दूसरी नंबर की सबसे बड़ी पार्टी माकपा के संसदीय दल के नेता को ग्वालियर में कॉमरेड मोतीलाल शर्मा के छोटे से मकान की अंधेरी सीढिय़ां चढ़ते हुए और 1980 के विधान सभा चुनाव में सबलगढ़ केतब झोपड़ी में बनाए गए,कामरेड बहादुर सिंह धाकड़ के चुनावी दफतर में खटिया पर बैठकर खाना खाते हुए देखने की यादें आज भी आंखों में बसी हुई है। 

मध्यप्रदेश सीटू के अध्यक्ष रामविलास गोस्वामी ने पटना में हुए सीटू के अखिल भारतीय सम्मलेन की घटना बतायी। खाने की छुट्टी के वक़्त समर दा हाथ में प्लेट लिए हुए लाइन में खड़े थे। रामविलास लपक कर पहुंचे और बोले 'दादा, आप बैठिये नामैं आपके लिए खाना ले आता हूँ'। मुस्कुराते हुए समर दा ने हाथ पकड़ कर इस तब के युवा मजदूर को लाइन में अपने आगे खड़ा कर लिया। रामविलास कहते हैं कि जितना वे तब तक पढ़ी किताबों और सुने भाषणों से नहीं सीख पाए थेउस से ज़्यादा समर दा के इस व्यवहार ने सिखा दिया।

कार्यकर्तायों की निजी जिंदगी की चिंता और उनसे मिलनसारिता के लिए समर दा जाने जाते है। इसी का एक और महत्वपूर्ण पहलू है। वे कार्यकर्ताओं की चिंता करते थे और उन्हें बेहद प्यार करते थे मगर यह प्यार रहम के रूप में या दया भाव दिखाने वाला नही होता था। सांगठनिक दायरे से बाहर जाकर समाधान निकालने या किसी कार्यकर्ता विशेष पर अतिरिक्त अनुराग दिखाने के बजाय उनका ज़ोर संगठन में समाधान निकालने व कार्यकर्ता में समझ व आत्मविश्वास विकसित करने पर रहता था। पिछले 8-10 वर्षों में वे जब भी मिले तब उन्होने अनुशासनात्मक कार्यवाही का शिकार हुए एक वरिष्ठ साथी को पार्टी सदस्यता देने के बारे में जरूर पैरवी की। उन्होंने कहा कि उसका संघर्षो में योगदान व कुर्बानी बहुत रही है। जितनी कार्यवाही हो गई काफी है। अब उसे पार्टी से जोडऩे की कोशिश करो । वे पार्टी के कंट्रोल कमीशन के चेयरमैन थेचाहते तो आदेश देकर भी बाध्य कर सकते थे। मगर ऐसा करने के बजाय सांगठनिक तरीके से विचार करने का सुझाव भर दिया। वह साथी अब हमारी पार्टी यानि समर दा की पार्टी की जबलपुर जिला समिति का सदस्य है। जब समर दा की बातों के बारे में मैंने उन्हें बताया तो उन्हें भी बहुत आश्चर्य हुआ, उन्होंने बताया कि पार्टी सदस्यता हासिल करने के लिए उन्होंने कभी समर दा से बात नही की थी। यह खुद समर दा की चिंता थी।  

जबलपुर में समर दा के एक भतीजे थे एक बार हमने देखा कि समर दा बांग्ला भाषा में अत्यंत बाल सुलभ जोश में उन्हें कुछ सुना रहे हैं बाद में हमने उनके भतीजे से पूछा तो उन्होंने बताया कि समर दा बता रहे थे कि उनके गाँव में भी किसान सभा बन गई है। देश की संसद का एक अत्यंत वरिष्ठ और आदरणीय सांसदइस बात पर खुश था कि उसके गाँव में भी अब किसान सभा बन गई है!

 

मध्यप्रदेश में इन पंक्तियों के लेखक सहित दर्जनों साथी है जिन्हें समर दा का प्यार भरा स्पर्श मिला है। अपने निजी जीवन के एक बड़े रोचक मोड़ पर उनकी मिनट की पूछताछ और उसके बाद कही गई बात आज तक याद है। तब मेरी नई-नई शादी हुई थी। समर दा ने पूछाअपनी पत्नी से अपने राजनीतिक काम के बारे में बात की हैमैं बोलाहाँ कामरेड उसे पता हैउसने कहा है कि वह खिचड़ी खा कर गुजारा कर लेगी। समर दा ने पूछाविचारधारा और नीतियों के बारे में बातचीत हुई? मैंने कहाहाँ हुई तो है। समर दा ने कहा कि जीवन में समझदारी की भिन्नता अच्छी नहीं होती। अफगानिस्तान में सेना जानी चाहिए कि नहींअगर इस सवाल पर भी समझदारी में फर्क है तो रिश्ता खतरे में पड़ सकता है। छह महीने बाद जो अनुभव हमें हुए उन्हें देख कर हम भौंचक रह गये थेहम आज तक नहीं समझ पाए कि सदैव अविवाहित रहे समर दा ने दाम्पत्य संबंधों की इतनी गहरी मनोवैज्ञानिक समझ कहाँ से पाई होगी।  


मध्यप्रदेश में बने हर जनसंगठन के स्थापना सम्मेलनों में कामरेड समर मुखर्जी की मौजूदगी का रिकार्ड ही इस बात को उजागर करने के लिए काफी है कि उन्होने मध्यप्रदेश में बिखरे सूखे तिनकों को चुन चुनकर किस जतन से घोंसला बनाया ताकि वह देर सबरे अगले विस्तार तक सुरक्षित अहसास व आत्मविश्वास प्रदान कर सके। कोई दो ढाई वर्ष पहले किसी बैठक में उनसे मुलाकात हुई थी। मध्यप्रदेश की खैर खबर लेने के बाद उन्होने पूछा था कि क्या पढ़ रहे हो। बताने पर वे थोड़ी और गहराई में गए थे और दो किताबें भी सुझायी थी।  

 

उनकी सौंवी वर्षगाँठ पर चाह कर भी कोलकता जाना नहीं हो पाया था। पार्टी केन्द्रीय समिति जनवरी 2013 की बैठक के समय उन्नीस जनवरी को अपने अग्रज साथी, झारखण्ड के राज्य सचिव गोपी कान्त बक्षी और छत्तीसगढ़ राज्य सचिव मानस नंदी, के साथ हम समर दा से उनके कम्यून में मिलने गए थे। हमें बाहर ही बता दिया गया था की वे भूल जाते हैं और पहचान नहीं पाते हैं। चार-पांच अखबारों को लिए बैठे समर दा ने बाकी सब के जवाब बंगाली में देने के बाद मुझसे हिंदी में सवाल किया कि और बाकी सब कैसे हैंमुझे आल्हाद हुआ कि उन्होंने मुझे पहचान लिया है मेरे बाद मिलने गए थे हमारे साथी जीवन राय। उन्होंने बताया कि जब उन्होंने समर दा से कहा कि अभी कम से कम दस साल और उनकी मौजूदगी चाहिएतो समर दा ने अपनी टेबल की दराज़ से एक अखबार की कटिंग निकाली और अपनी निश्छल हंसी के साथ कहा, 'देखोइसमें लिखा है कि एक व्यक्ति 155 साल तक जीवित रहा है। इस लिहाज से तो अभी मेरे पास कम से कम पचपन साल और हैं!'

निजी जिंदगी में सादगीसरलतासमर्पण और त्याग व मजदूर वर्ग की जीत में अगाध विश्वास और उस दिशा में आगे बढऩे की हर मुमकिन कोशिश का सशरीर रूप थे कामरेड समर मुखर्जी। वे एक आदर्श कम्युनिस्ट जीवन की प्रतिमूर्ति थे। जीवन भर वैज्ञानिक चेतना के फैलाव के लिए जूझने वाले समर दाजाते जाते भी विज्ञान के प्रति खुद को समर्पित कर गए। उनकी इच्छा के अनुरूप उनकी देह कोलकाता मेडिकल कॉलेज को सौंप दी गई। हरेक के लिए समर मुखर्जी बन पाना एक कठिन व श्रमसाध्य कर्म है। मगर उनके दिखाये रास्ते पर चलना कम्युनिस्ट आंदोलन में बने रहने की अपरिहार्य जरूरत है।  

 

हमें गर्व है कि हम सबने समर दा की छाया में चलकर तपती धूप के कुछ रास्ते तय किये है। सच है कि हर कोई समर दा नहीं हो सकताज्योति बसु ने उन्हें "ईश्वर का खुद का व्यक्तियानि "गॉडज़ ओन मैनकहा था। मगर दो बातें पक्की हैं। एक तो यह है कि कोई कम्युनिस्ट ही समर दा हो सकता है और दूसरी ये कि आज भी कम्युनिस्ट आन्दोलन में इस तरह जीवन गुजारने और इन विश्वासों में यकीन करने वाले सैकड़ों में नहीं हजारों में हैं। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की यह आभा आने वाली अनेक पीढ़ियों को रास्ता सुझाती रहेगी।

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